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एक झरोखा

मेरी बात
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बरसों बाद खुली हवा का ,

आया एक था झोंका सा |

झुरमुट में बैठी यादों की ,

जिसे मिली दिलासा सा |

सोने के पिंजरे की थी खिडकी एक खुली हुई ,

मौका देख सुनहरा वो ,

हुयी वहाँ से भाग खड़ी |

खुला चमन और भोर उषा की ,

रवि ने किरण बिखेरी थी ,

इन्द्रधनुषी , सपने सतरंगी

लिए नयन में चहकी सी |

संतोष की साँस लिए ,

फिर उड़ वह अम्बर में चली

नइ उमंग और नए जोश में

थी तो वह आजाद अभी |

चंद दूर ही उड़ पायी थी

आया गिद्धों का एक झुंड

जता गया तु है दुर्बल

नहीं जमेगा तेरा रंग

तु पिंजरे में रहती है ,

पिंजरा ही तेरा , है घर द्वार ,

खाना पानी मिल जाएगा

पिंजरा ही तेरा संसार

एक झरोखा किरण बिखेरे

दूर करे तम की भरमार ,

करते रहे चौकीदारी सब

चाहे जितने पहरेदार |

कर्तव्य समर्पण ही बस ,

उसकी ,नहीं रही पहचान ये

वह कुछ भी कर सकती है

बस रखना इतना ध्यान में |

कुछ उसकी अभिलाषा है ,

उसकी भी कुछ आशा है ,

अन्नपूर्णा , सीता ही नहीं वो

समय – समय पर ज्वाला है |

दुर्गा – काली बनी चण्डिका ,

जब –जब जागा , इनका अभिज्ञान है ,

बरसों बाद एक झरोखे ने छेडा अभियान है |

नहीं पता है उनको कि बस

चाहे हो दरवाजे बंद

आत्ज्ञान अभिज्ञान तो

कर देती जीवन को बुलंद | | | | | | |……….

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